भारत में आपातकाल की घोषणा के 50 साल पूरे होने पर डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन (SPMRF) नई दिल्ली में भारत के लोकतांत्रिक इतिहास के सबसे अंधकारमय अध्याय यानी आपातकाल पर खास कार्यक्रम में केंद्रीय गृह एवं सहकारिता अमित शाह खुलकर बोले।
अमित शाह
ने कहा कि लोकतांत्रिक मूल्य भारतीय संस्कृति में गहराई से समाहित हैं। उन्होंने स्मरण किया कि कैसे उपनिवेश काल में भी भारतवासी, चाहे किसी भी क्षेत्र या पृष्ठभूमि से हों, प्रतिनिधिक शासन की आकांक्षा रखते थे, और वही मूल्य आज भी राष्ट्र की आकांक्षाओं को दिशा दे रहे हैं।
आपातकाल को लोकतंत्र की आत्मा पर एक क्रूरतम प्रहार बताते हुए, शाह ने प्रस्ताव रखा कि 25 जून को प्रतिवर्ष “संविधान हत्या दिवस” के रूप में मनाया जाना चाहिए — एक ऐसा दिन जब संविधान के हनन और सत्तावाद के विरुद्ध डटे लाखों भारतीयों के साहस को याद किया जाए।
भारत को “लोकतंत्रों की जननी” बताते हुए, उन्होंने वैशाली और मल्लों जैसे प्राचीन गणराज्यों का उदाहरण दिया और बताया कि हमारे लोकतांत्रिक परंपराएं कितनी गहराई तक जमी हुई हैं। उन्होंने कहा कि कोई भी तानाशाह, चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, भारतीय लोकतंत्र की नींव को उखाड़ नहीं सकता।
केंद्रीय गृह मंत्री ने आपातकाल की सामूहिक पीड़ा को याद करते हुए कहा कि समाज के हर वर्ग—छात्रों से लेकर सरकारी कर्मचारियों तक, पत्रकारों से लेकर गृहिणियों तक—ने इसका दंश झेला। उन्होंने अपने व्यक्तिगत अनुभव साझा करते हुए बताया कि उनके गांव से 184 लोगों को मनमाने ढंग से गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया गया था।
शाह ने छात्र आंदोलनों और लोकनायक जयप्रकाश नारायण के नेतृत्व वाले जेपी आंदोलन की भूमिका की सराहना की, जिसने देश की चेतना को जगाया। उन्होंने आपातकाल के दौरान राज्य तंत्र के दुरुपयोग की तीखी आलोचना की, जब केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल असहमति को दबाने, विपक्ष को डराने और नागरिक स्वतंत्रताओं को कुचलने के लिए किया गया।
उन्होंने यह भी कहा कि उस समय की कांग्रेस सरकार ने न्यायपालिका और मीडिया जैसी स्वतंत्र संस्थाओं को भी कमजोर किया—जो लोकतंत्र के खिलाफ किसी भी खतरे की रक्षा करने वाली ढाल होनी चाहिए थीं।
शाह ने प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी द्वारा लिखित उस पुस्तक की सराहना की, जो आपातकाल की भयावहता और उन सामान्य नागरिकों के त्याग को दर्ज करती है जिन्होंने स्वतंत्रता की रक्षा में अडिग रहकर संघर्ष किया। उन्होंने इस पुस्तक को भारतीय जनता की साहस और संकल्प को समर्पित बताया।
भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था की अक्षुण्ण शक्ति को रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा कि सरकारें आती-जाती रहेंगी, लेकिन संविधान की आत्मा हर नागरिक में जीवित रहनी चाहिए। उन्होंने युवाओं से संविधानिक मूल्यों को आत्मसात करने और उन्हें निभाने की अपील के साथ अपने उद्बोधन का समापन किया।
यह कार्यक्रम केवल अतीत के अन्यायों को याद करने का मंच नहीं था, बल्कि यह लोकतांत्रिक संस्थाओं की रक्षा के संकल्प को दोहराने और यह सुनिश्चित करने का अवसर भी था कि भारत के इतिहास में फिर कभी ऐसा अध्याय न दोहराया जाए।